कट्टर हिंदुत्व से कट्टर तालिबान तक संबंध !

देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? 🕌 देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? भारत–तालिबान संबंध : वक्त की ज़रूरत हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की भारत यात्रा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोरी। यह यात्रा भारत–अफ़ग़ानिस्तान संबंधों को नए सिरे से देखने का अवसर प्रदान करती है। वर्षों तक दोनों के बीच संवाद सीमित रहा, पर अब भू–राजनीतिक परिस्थितियों ने दोनों को बातचीत की मेज़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। सवाल यह भी है कि — क्या तालिबान की वैचारिक जड़ें देवबंद से जुड़ी हैं, और क्या भारत को ऐसे समूह से संबंध बढ़ाने चाहिए? आइए इसे क्रमवार समझते हैं 👇 🕋 1. देवबंद और तालिबान का वैचारिक संबंध 🔸 ऐतिहासिक आधार दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 1866 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध धार्मिक और शैक्षणिक आंदोलन के रूप में हुई। इसका उद्देश्य था इस्लामी शिक्षा, नैतिकता और सामाजिक सुधार को पुनर्जीवित करना। 🔸 वैचारिक समानता, प्रत्यक्ष संबंध नहीं “तालिबान” शब्द का अर्थ है विद्यार्थी — उनके कई सदस...

शिवाजी के सेनापति वीर प्रताप राव गुर्जर उर्फ कतौजी गुर्जर

प्रतापराव गुर्जर शिवाजी महाराज के प्रमुख सेनापति 16-1-1666 से 24-2-1674

   बलिदान दिवस 24 फरवरी

वीर प्रताप राव गुर्जर मराठा सेना के महान सेनापतियों में गिने जाते हैं, जिन्होने अपने पराक्रम व सूझबूझ से वीर शिवाजी महाराज के राज्य को हिन्दवी साम्राज्य में बदलने में जी जान लगा दी व शौर्य की एक अदभुत मिशाल की।

प्रताप राव गुर्जर शिवाजी महाराज छत्रपति

उन्होने मुगलो की सेना को कई बार हराया व जय सिहँ व बहलोल खान को अपनी वीरता से भागने पर मजबूर किया।


प्रताप राव गुर्जर शिवाजी भौंसले के प्रमुख सेनापति थे। शिवाजी की सेना का मुख्य भाग अश्वसेना थी। अश्वसेना का भी प्रतापराव सरे नौबत का अर्थात सेनापति थे। अश्व सेना, पैदल सेना, हाथी तथा नौसेना चारों सेनाओं का जनरल अथवा मुख्य सेनापति रहने का श्रेय प्रताप राव गुर्जर को मिला था। प्रताप राव का वास्तविक नाम कड़पतो गुर्जर था और प्रताप राव की उपाधि से शिवाजी ने उसे विभूषित किया था। इतिहास में वह प्रतापराव गुर्जर नाम से ही प्रसिद्ध है। शिवाजी ने कतौजी गुर्जर की बहादुर और दिलेरी आदि की जांच करके ही महाराणा प्रताप की याद में प्रतापराव की उपाधि दी थी। प्रतापराव गुर्जर से पूर्व शिवाजी की सेना का सेनापति नेताजी पालकर को महत्वपूर्ण संदेश भिजवाया कि सिद्धी जौहर को पराजित करके तुरन्त मेरे पास अपनी पूरी सैनिक बल के साथ पहुंच जाओ। लेकिन नेताजी पालकर शिवाजी की सहायतार्थ सेना को लेकर नहीं पहुंच सके और पनहाला का किला शिवाजा को समर्पित करना पड़ा । शिवाजी को इसका बड़ा दुख हुआ पालकर सेनापति जब शिवाजी के पास पहुंचा तो शिवाज बहुत नाराज था। शिवाजी क्षत्रपति के लेखक सुरेन्द्र नाथ सेन ने पृष्ठ 78 पर लिखा है , शिवाजी ने नेताजी पालकर से मुख्य सेनापति तथा अश्व सेना का सरेनौबत पद वापिस लेकर कर्तो जी गुर्जर को जो उस समय राजगढ़ किले का सेनापति तथा अश्व सेना का नरेनौबत था, मुख्य सेनापति तथा अश्व सेना का सेनापति नियुक्त कर दिया और प्रताप राव की उपाधि से विभूषित कर दिया । 16-1-1666 से प्रताप राव गुर्जर शिवाजी की सारी सेना का कमान्डर इन चीफ हो गया । 


शिवाजी की सेना जिसका मुख्य सेनापति 16 जनवरी 1666 से प्रताप राव गुर्जर को नियुक्त किया था वह इस प्रकार से थी। शिवाजी द गेट गुरिल्ला के लेखक कनर आर0डी0 पलसोकर एम0 सी ने पृष्ट 172 पर शिवजी की अश्व सेना का संगठन इस प्रकार लिखा है:- शिवाजी की अश्व सेना से दो तरह की यूनिट थी बारगीरस व सिलेदार । चारगीरस को घोड़ राज्य की तरफ से दिए जाते थे और उनका वेतन कम होता था। सिलेदार अपने घोड़े स्वयं रखते थे आर उनका वेतन वारगीरस की अपेक्षा अधिक होता था। एक हवलदार 25 घुड़सवारों का कमान्डर होता था। एक जुमलेदर के आधीन 5 हवलदार अर्थात 125 अश्वारोह होते थे । एक सूबेार 10 जुसलेदारों का कमाडंर होता था अर्थात 1250 अश्वारोहियों उसके आधीन होते थे । एक पंजहजारी 10 सूबेदारों का अधिकारी होता था अर्थात वह 12500 अश्वारोहियां का कमान्डर होता था। अश्व सेना का सेनापति सरेनौबत कहलाता था और उसकी आधीनता में 5000 घुड़ वाल सीधे आते थे । प्रायः उसे किसी महत्वपूर्ण किले पर तैनात किया जाता था जैसे प्रतापराव गुर्जर मुख्य सेनापति नियुक्त होने से पूर्व राजगढ़ किले पर तैनात था और अश्व सेना का सेनापति अथवा सरेनौबत था ।


प्रताप राव वास्तव में एक योग्य सामरिक योजनाकार और निपुण सेनानायक था। वह मुगलों और बीजापुरी सुल्तानों के विरूद्ध अनेक महत्वपूर्ण और निर्णायक युद्ध की जीत का नायक रहा। सिंहगढ़, सल्हेरी और उमरानी के युद्ध में उसकी बहादुरी और रणकौशल देखते ही बनता था। प्रताप राव के हैरत अंगेज जंगी कारनामों की मुगल और दक्कन के दरबारों में चर्चा थी। प्रताप राव का वास्तविक नाम कड़तो जी था, प्रताप राव की उपाधि उसे शिवाजी ने सरेनौबत (प्रधान सेनापति) का पद प्रदान करते समय दी थी। प्रताप का अर्थ होता है- वीर। एक अन्य मत के अनुसार यह उपाधि शिवाजी ने उसे मिर्जा राजा जय सिंह के विरूद्ध युद्ध में दिखाई गई वीरता के कारण सम्मान में दी थी। प्रताप राव ने अपने सैनिक जीवन का प्रारम्भ शिवाजी की फौज में एक मामूली गुप्तचर के रूप में किया था। एक बार शिवाजी वेश बदल कर सीमा पार करने लगे, तो प्रताप राव ने उन्हें ललकार कर रोक लिया, शिवाजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए भांति-भांति के प्रलोभन दिये, परन्तु प्रताप राव टस से मस नहीं हुआ। शिवाजी प्रताप राव की ईमानदारी, और कर्तव्य परायणता से बेहद प्रसन्न हुए। अपने गुणों और शौर्य सेवाओं के फलस्वरूप सफलता की सीढ़ी चढ़ता गया शीघ्र ही राजगढ़ छावनी का सूबेदार बन गया।


इस बीच औरंगजेब ने जुलाई 1659 में शाइस्तां खां को मुगल साम्राज्य के दक्कन प्रान्त का सूबेदार नियुक्त किया, तब तक मराठों का मुगलों से कोई टकराव नहीं था, वे बीजापुर सल्तनत के विरूद्ध अपना सफल अभियान चला रहे थे। औरंगजेब शिवाजी के उत्कर्ष को उदयीमान मराठा राज्य के रूप में देख रहा था। उसने शाइस्ता खाँ को आदेश दिया कि वह मराठों से उन क्षेत्रों को छीन ले जो उन्होंने बीजापुर से जीते हैं। आज्ञा पाकर शाईस्ता खां ने भारी लाव-लश्कर लेकर पूना को जीत लिया और वहां शिवाजी के लिए निर्मित प्रसिद्ध लाल महल में अपना शिविर डाल दिया। उसने चक्कन का घेरा डाल कर उसे भी जीत लिया, 1661 में कल्याण और भिवाड़ी को भी उसने जीत लिया। 


प्रतिक्रिया स्वरूप शिवाजी ने पेशवा मोरो पन्त और प्रताप राव को अपने प्रदेश वापस जीतने की आज्ञा दी, मोरोपन्त ने कल्याण और भिवाड़ी के अतिरिक्त जुन्नार पर भी हमला किया। रेरी बखर व चिटनिस के वर्णन के अनुसार प्रताप राव गुर्जर ने मुगल क्षेत्रों में एक सफल अभियान किया। वह अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों के अन्दरूनी क्षेत्रों में घुस गया। मुगलों का समर्थन करने वाले गांव, कस्बों और शहरों को बर्बाद करते हुए वह गोदावरी तट तक पहुंच गया। प्रताप राव ने बालाघाट, परांडे, हवेली, गुलबर्गा, अब्स और उदगीर को अपना निशाना बनाया और वहां से युद्ध हर्जाना वसूल किया और अन्त में वह दक्कन में मुगलों की राजधानी औरंगाबाद पर चढ़ आया। महाकूब सिंह, औरंगाबाद में औरंगजेब का संरक्षक सेनापति था। वह दस हजार सैनिकों के साथ प्रताव राव का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। अहमदनगर के निकट दोनों सेनाओं का आमना-सामना हो गया। मुगल सेना बुरी तरह परास्त हुई। प्रताप राव ने मुगल सेनापति को युद्ध में हराकर उसका वध कर दिया। इस सैनिक अभियान से प्राप्त बेशुमार धन-दौलत लेकर प्रताप राव वापस घर लौट आया, प्रताप राव के इस सैन्य अभियान से शाइस्ता खां की मुहिम को एक बड़ा धक्का लगा। उत्साहित होकर मराठों ने अब सीधे शाईस्ता खां पर हमला करने का निर्णय लिया।


प्रतिक्रिया स्वरूप शिवाजी ने पेशवा मोरो पन्त और प्रताप राव को अपने प्रदेश वापस जीतने की आज्ञा दी, मोरोपन्त ने कल्याण और भिवाड़ी के अतिरिक्त जुन्नार पर भी हमला किया। रेरी बखर व चिटनिस के वर्णन के अनुसार प्रताप राव गुर्जर ने मुगल क्षेत्रों में एक सफल अभियान किया। वह अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों के अन्दरूनी क्षेत्रों में घुस गया। मुगलों का समर्थन करने वाले गांव, कस्बों और शहरों को बर्बाद करते हुए वह गोदावरी तट तक पहुंच गया। प्रताप राव ने बालाघाट, परांडे, हवेली, गुलबर्गा, अब्स और उदगीर को अपना निशाना बनाया और वहां से युद्ध हर्जाना वसूल किया और अन्त में वह दक्कन में मुगलों की राजधानी औरंगाबाद पर चढ़ आया। महाकूब सिंह, औरंगाबाद में औरंगजेब का संरक्षक सेनापति था। वह दस हजार सैनिकों के साथ प्रताव राव का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। अहमदनगर के निकट दोनों सेनाओं का आमना-सामना हो गया। मुगल सेना बुरी तरह परास्त हुई। प्रताप राव ने मुगल सेनापति को युद्ध में हराकर उसका वध कर दिया। इस सैनिक अभियान से प्राप्त बेशुमार धन-दौलत लेकर प्रताप राव वापस घर लौट आया, प्रताप राव के इस सैन्य अभियान से शाइस्ता खां की मुहिम को एक बड़ा धक्का लगा। उत्साहित होकर मराठों ने अब सीधे शाईस्ता खां पर हमला करने का निर्णय लिया।


मराठे, शिवाजी के नेतृत्व, में एक छद्म बारात का आयोजन कर उसके शिविर में घुस गये और शाइस्ता खां पर हमला कर दिया। शाइस्ता खां किसी प्रकार अपनी जान बचाने में सफल रहा परन्तु इस संघर्ष में शिवाजी की तलवार के वार से उसके हाथ की तीन ऊँगली कट गयी। इस घटना के परिणाम स्वरूप एक मुगल सेना अगली सुबह सिंहगढ़ पहुंच गयी। मराठों ने मुगल सेना को सिंहगढ़ के किले के नजदीक आने का अवसर प्रदान किया। जैसे ही मुगल सेना तापों की हद में आ गयी, मराठों ने जोरदार बमबारी शुरू कर दी। उसी समय प्रताप राव अपनी घुड़सवार सेना लेकर सिंहगढ़ पहुंच गया और मुगल सेना पर भूखे सिंह के समान टूट पड़ा, पल भर में ही मराठा घुड़सवारों ने सैकड़ों मुगल सैनिक काट डाले, मुगल घुड़सवारों में भगदड़ मच गयी, प्रताप राव गुर्जर ने अपनी सेना लेकर उनका पीछा किया। इस प्रकार मुगल घुड़सवार सेना मराठों की घुड़सवार सेना के आगे-आगे हो ली। यह पहली बार हुआ था कि मुगलों की घुड़सवार सेना का मराठा घुड़सवार सेना ने पीछा किया हो। सिंहगढ़ की लड़ाई में प्रताप राव गुर्जर ने जिस बहादुरी और रणकौशल का परिचय दिया, शिवाजी उससे बहुत प्रसन्न हुए। अपनी इस शानदार सफलता से उत्साहित प्रताव राव ने मुगलों की बहुत सी छोटी सैन्य टुकड़ियों को काट डाला और मुगलों को अपनी सीमा चौकियों को मजबूत करने के लिए बाध्य कर दिया।

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शाइस्ता खां इस हार और अपमान से बहुत शर्मिन्दा हुआ। उसकी सेना का मनोबल गिर गया। उनके दिल में मराठों का भय घर कर गया, शाइस्ता खां की इस मुहिम की विफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी और उनका दक्कन का सूबा खतरे में पड़ गया। दक्कन में तनाव इस कदर बढ़ गया कि लगने लगा कि अब औरंगजेब स्वयं दक्कन कूच करेगा परन्तु कश्मीर और पश्चिमी प्रान्त में विद्रोह हो जाने के कारण वह ऐसा न कर सका। फिर भी उसने शाइस्ता खां को दक्कन से हटा कर उसकी जगह शहजादा मुअज्जम को दक्कन का सूबेदार बना दिया।


मराठों ने पूरी तरह मुगल विरोधी नीति अपना ली और 1664 ई० में मुगल राज्य के एक महत्वपूर्ण आर्थिक स्रोत, प्रसिद्ध बन्दरगाह और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केन्द्र, सूरत शहर को लूट लिया। इस तीव्रगति के आक्रमण में शिवाजी के साथ प्रताप राव गूजर और मोरो पन्त पिंगले और चार हजार मवाली सैनिक थे। सूरत की लूट से मराठों को एक करोड़ रूपये प्राप्त हुए जिसके प्रयोग से मराठा राज्य को प्रशासनिक और सैनिक सुदृढ़ता प्राप्त हुई। सूरत की लूट औरंगजेब सहन नहीं कर सका। इधर मराठों ने मक्का जाते हुए हज यात्रियों के एक जहाज पर हमला कर दिया। इस घटना ने आग में घी का काम किया और औरंगजेब गुस्से से आग-बबूला हो उठा। उसने तुरन्त मिर्जा राजा जय सिंह और दिलेर खां के नेतृत्व में विशाल सेना मराठों का दमन करने के लिए भेज दी। दक्कन पहुंचते ही दिलेर खां ने पुरन्दर का घेरा डाल दिया, जय सिंह ने सिंहगढ़ को घेर लिया और अपनी कुछ टुकड़ियों को राजगढ़ और लोहागढ़ के विरूद्ध भेज दिया। जय सिंह जानता था कि मराठों को जीतना आसान नहीं है, अत: वह पूर्ण तैयारी के साथ आया था। उसके साथ 80000 चुने हुए योद्धा थे। स्थित की गम्भीरता को देखते हुए शिवाजी ने पहली बार रायगढ़ में एक युद्ध परिषद् की बैठक बुलायी। संकट की इस घड़ी में नेताजी पालकर जो कि उस समय प्रधान सेनापति थे, राजद्रोही हो गये। शिवाजी ने उन्हें स्वराज्य की सीमा की चौकसी का आदेश दे रखा था लेकिन जय सिंह की सेना के आने पर वह मराठों की मुख्य सेना को लेकर बहुत दूर निकल गये। शिवाजी ने उन्हें फौरन सेना को लेकर वापिस आने का आदेश् दिया। परन्तु नेता जी पालकर वापिस नहीं आये। नेता जी वास्तव में जय सिंह से मिल गये थे जिसने उन्हें मुगल दरबार में उच्च मनसब प्रदान कराने का वायदा किया था। सेनापति के इस आचरण से मुगल आक्रमण का संकट और अधिक गहरा गया। 


संकट के इन क्षणों में प्रताप राव ने शिवाजी का भरपूर साथ दिया था। उसने एक हद तक मुगल सेना की रसद पानी रोकने में सफलता प्राप्त की और उसने बहुत सी मुगल टुकड़ियों को पूरी तरह समाप्त कर दिया। वह लगातार मुगल सेना की हलचल की खबर शिवाजी को देता रहा। संकट की इस घड़ी में प्रताप राव के संघर्ष से प्रसन्न होकर ही शिवाजी ने उसे सरे नौबत का पद और प्रताप राव की उपाधि प्रदान किया।


शिवाजी युद्ध की स्थिति का जायजा लेकर, इस नतीजे पर पहुंचे कि जय सिंह को आमने-सामने की लड़ाई में हराना सम्भव नहीं है। अत: उन्होंने प्रताप राव को जय सिंह का वध करने का कार्य सौंपा। एक योजना के अन्तर्गत प्रताप राव जय सिंह के साथ मिल गये और एक रात मौका पाकर उन्होंने जय सिंह को उसके शिविर में मारने का एक जोरदार प्रयास किया परन्तु अंगरक्षकों के चौकन्ना होने के कारण जय सिंह बच गया। प्रताप राव गुर्जर शत्रुओं के हाथ नहीं पड़ा और वह शत्रु शिविर से जान बचाकर निकलने में सफल रहा। प्रताप राव का यह दुस्साहिक प्रयास भी स्वराज्य के काम न आ सका। जय सिंह से संधि की बातचीत शुरू कर दी गयी। जिसके परिणामस्वरूप 1665 में पुरन्दर की संधि हुई। सन्धि के अन्र्तगत शिवाजी को 23 महत्वपूर्ण दुर्ग मुगलों को सौंपने पड़े। बीजापुर के कुछ क्षेत्रों पर शिवाजी का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। शिवाजी के पुत्र संभाजी को मुगल सेना में पांच हजारी मनसब प्रदान किया गया। शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों का साथ देने का वचन दिया।


परन्तु बीजापुर के विरूद्ध मुगल-मराठा संयुक्त अभियान सफल न हो सका। इस अभियान के असफल होने से मुगल दरबार में जय सिंह की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। अत: उसने औरंगजेब को अपना महत्व दर्शाने के लिए शिवाजी को उससे मिलाने के लिए आगरा भेजा। मुगल दरबार में उचित सम्मान न मिलने से शिवाजी रूष्ट हो गये और तत्काल मुगल दरबार छोड़ कर चले गये। औरंगजेब ने क्रुद्ध होकर उन्हें गिरफ्तार करा लिया। एक वर्ष तक शिवाजी आगरा में कैद रहे फिर एक दिन मुगल सैनिकों को चकमा देकर वह कैद से निकल गये और सितम्बर 1666 में रायगढ़ पहुंच गये। जब तक शिवाजी कैद में रहे स्वराज्य की रक्षा का भार पेशवा और प्रधान सेनापति प्रताप राव के जिम्मे रहा। शिवाजी की अनुपस्थिति में दोनों ने पूरी राजभक्ति और निष्ठा से स्वराज्य की रक्षा की।


आगरा से वापस आने के बाद शिवाजी तीन वर्ष तक चुप रहे। उन्होंने मुगलों से संधि कर ली। जिसके द्वारा पुरन्दर की संधि को पुन: मान्यता दे दी गयी और संभा जी को पांच हजारी मनसब प्रदान कर दिया गया। संभाजी अपने अपने पांच हजार घुड़सवारों के साथ दक्कन की मुगल राजधानी औरंगाबाद में रहने लगे। परन्तु कम उम्र होने के कारण इस सैन्य टुकड़ी का भार प्रताप राव गूजर को सौंप कर वापस चले आये। मुगल-मराठा शान्ति अधिक समय तक कायम न रह सकी। औरंगजेब को शक था कि शहजादा मुअज्जम शिवाजी से मिला हुआ है। उसने शहजादे को औरंगाबाद में मौजूदा प्रताप राव को गिरफ्तार कर उसकी सेना को नष्ट करने का हुक्म दिया। परन्तु सम्राट के हुक्म के पहुचने से पहले ही प्रताप राव गुर्जर अपने पांच हजार घुड़सवारों को लेकर औरंगाबाद से सुरक्षित निकल आया।


मराठों ने मुगल प्रदेशों पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने पुरन्दर की संधि के द्वारा मुगलों को सौंपे गये अनेक किले फिर से जीत लिये। 1670 में सिंहगढ़ और पुरन्दर सहित अनेक महत्वपूर्ण किले वापस ले लिये गये। 13 अक्टूबर 1670 को मराठों ने सूरत पर से हमला बोलकर उसे फिर लूट लिया। तीन दिन के इस अभियान में मराठों के हाथ 66 लाख रूपये लगे। वापसी में शिवाजी जब वानी-दिदोरी के समीप पहुंचे तो उनका सामना दाऊद खान के नेतृत्व वाली मुगल सेना से हुआ। ऐसे में खजाने को बचाना एक मुश्किल काम था। शिवाजी ने अपनी सेना को चार भागों में बांट दिया। उन्होंने प्रताप राव के नेतृत्व वाली टुकड़ी को खजाने को सुरक्षित कोकण ले जाने की जिम्मेदारी सौंपी और स्वयं दाऊद खान से मुकाबले के लिए तैयार हो गये। मराठों ने इस युद्ध में मुगलों को बुरी तरह पराजित कर दिया। दूसरी और प्रताप राव खजाने को सुरक्षित निकाल ले गया।


सूरत से लौटकर प्रताव राव गुर्जर ने खानदेश और बरार पर हमला कर दिया। प्रताप राव ने मुगल क्षेत्र के कुंरिजा नामक नगर सहित बहुत से नगरों, कस्बों और ग्रामों को बर्बाद कर दिया। प्रताप राव गुर्जर के इस युद्ध अभियान का स्मरणीय तथ्य यह है कि वह रास्ते में पड़ने वाले ग्रामों के मुखियाओं से, शिवाजी को सालाना ‘चौथ’ नामक कर देने का लिखित वायदा लेने में सफल रहा। चौथ नामक कर मराठे शत्रु क्षेत्र की जनता को अपने हमले से होने वाली हानि से बचाने के बदले में लेते थे। इस प्रकार हम वह तारीख निश्चित कर सकते हैं जब पहली बार मराठों ने मुगल क्षेत्रों से चौथ वसूली की। यह घटना राजनैतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थी। इससे महाराष्ट्र में मराठों की प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। यह घटना इस बात का प्रतीक थी कि महाराष्ट्र मराठों का है मुगलों का नहीं।


अंतत: मुगल सम्राट ने गुजरात के सूबेदार बहादुर खान और दिलेर खान को दक्षिण का भार सौंपा। इन दोनों ने सलहेरी के किले का घेरा डाल दिया। और कुछ टुकड़ियों को वहीं छोड़कर दोनों ने पूना और सूपा पर धावा बोल दिया। सलहेरी का दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। अत: शिवाजी इसे हर हाल में बचाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। शिवाजी सेना लेकर सलहेरी के निकट पहुंच गये। इस बात की सूचना मिलते ही दिलेर खां पूना से सलहेरी की ओर दौड़ पड़ा और उसने शिवाजी द्वारा भेजे गये दो हजार मराठा घुड़सवारों को एक युद्ध में परास्त कर काट डाला। मराठों की स्थिति बहुत बुरी तरह बिगड़ गयी। शिवाजी ने मोरोपन्त पिंगले और प्रताप राव गुर्जर को बीस-बीस हजार घुड़सवारों के साथ सलहेरी पहुंचने का हुक्म दिया। मराठों की इन गतिविधियों को देखते हुए बहादुर खां ने इखलास खां के नेतृत्व में अपनी सेना के मुख्य भाग को प्रताप राव गुर्जर के विरूद्ध भेज दिया। युद्ध शुरू होने के कुछ समय पश्चात् ही प्रताप राव ने अपनी सेना को वापिसी का हुक्म दे दिया। मराठे तेजी के साथ पहाड़ी दर्रो और रास्तों से गायब होने लगे। उत्साही मुगल उनके पीछे भागे। पीछा करते हुए मुगल सेना बिखर गयी अब प्रताप राव गुर्जर ने तेजी से घूमकर मराठों को संगठित किया और दुगने वेग से हमला बोल दिया। मुगल सेना प्रताप राव के इस जंगी दांव से भौचक्की रह गयी। मुगल भ्रमित और भयभीत हो गये और उनमें भगदड़ मच गयी। इखलास खां ने मुगल सेना को फिर से संगठित करने की कोशिश की, कुछ नई मुगल टुकड़ी भी आ गयी, घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया तभी मोरो पन्त भी अपनी सेना लेकर पहुंच गये। मराठों ने मुगलों को बुरी तरह घेर कर मार लगाई। मराठों ने मुगल सेना बुरी तरह रौंद डाली। कहते हैं कि मुगलों के सबसे बहादुर पांच हजार सैनिक मारे गये, जिनमं बाइस प्रमुख सेनापति थे। बहुत से प्रमुख मुगल यौद्धा घायल हुए और कुछ पकड़ लिये गये।


सलहेरी के युद्ध में मराठों की सफलता अपने आप में एक पूर्ण विजय थी और इसका सर्वोच्च नायक था प्रताप राव गुर्जर। सलहेरी के युद्ध में मराठों को 125 हाथी, 700 ऊट, 6 हजार घोड़े, असंख्य पशु और बहुत सारा धन सोना, चांदी, आभूषण और युद्ध सामग्री प्राप्त हुई। सलहेरी की विजय मराठों की अब तक की सबसे बड़ी जीत थी। आमने-सामने की लड़ाई में मराठों की मुगलों के विरूद्ध यह पहली महत्वपूर्ण जीत थी। इसी जीत ने मराठा शौर्य की प्रतिष्ठा को चार चांद लगा दिया। इस युद्ध के पश्चात् दक्षिण में मराठों का खौफ बैठ गया। युद्ध का सबसे पहला असर यह हुआ कि मुगलों ने सलहेरी का घेरा उठा लिया और औरंगाबाद लौट गये।


1672 के अन्त में मराठों और बीजापुर में पुन: सम्बन्ध विच्छेद हो गये। अपने दक्षिणी क्षेत्रों की रक्षा की दृष्टि से मराठों ने पन्हाला को बीजापुर से छीन लिया। सुल्तान ने पन्हाला वापिस पाने के लिये बहलोल खान उर्फ अब्दुल करीम के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। बहलोल खान ने पन्हाला का घेरा डाल दिया। शिवाजी ने प्रताप राव गुर्जर को पन्हाला को मुक्त कराने के लिये भेजा। प्रताप राव गुर्जर ने पन्हाला को मुक्त कराने के लिये एक अद्भुत युक्ति से काम लिया। प्रताप राव गुर्जर ने पन्हाला कूच करने के स्थान पर आदिलशाही राजधानी बीजापुर पर जोरदार हमला बोल दिया और उसके आसपास के क्षेत्रों को बुरी तरह उजाड़ दिया। उस समय बीजापुर की रक्षा के लिए वहां कोई सेना नहीं थी अत: बहलोल खान पन्हाला का घेरा उठाकर बीजापुर की रक्षा के लिए भागा। लेकिन प्रताप राव ने उसे बीच रास्ते में उमरानी के समीप जा घेरा। बहलोल खान की सेना की रसद रोक कर प्रताप राव ने उसे अपने जाल में फंसा लिया और उसकी बहुत सी अग्रिम सैन्य टुकड़ियों का पूरी तरह सफाया कर दिया। बहलोल खान ने हार मानकर शरण मांगी। प्रताप राव ने संधि की आसान शर्तो पर उसे जाने दिया। प्रताप राव पन्हाला को मुक्त कराकर ही संतुष्ट था परन्तु शिवाजी ने शत्रु पर दिखाई गई उदारता पर अपनी नाखुशी प्रकट की। शिवाजी गलत नहीं थे, यह बहुत जल्दी ही सिद्ध हो गया। क्योंकि जैसे ही प्रतापराव बरार पर आक्रमण करने के लिये दूर निकल गया, बहलोल खान पुन: अपनी सेना को संगठित कर पन्हाला की तरफ चल दिया। प्रताप राव खबर मिलते ही वापस लौटा और जैसरी के पास दोनों का आमना-सामना हो गया। प्रताप राव गुर्जर के पास मात्र 1200 सैनिक थे जबकि बहलोल खान की सेना में 15000 सैनिक थे।


इसी प्रकार नौ सेना मे 50000 सैनिक थे, 160 समुद्री जहाज तथा नौकाएं थी, दो किले सिन्धु दुर्ग और इस नौसेना के लिए विशेष तौर पर बनाए गए थे। चार प्रकार के समुद्री जहाज थे जो क्रमशः 150 नौसिक, 60 नौसिक गहने पानी में इनके सामान के साथ जा सकते थे । अन्य दो प्रकार के जहाज खड़े पानी तथा कम पानी में चल सकते थे । नौसेना के कमान्डर को दरया सारंग व माई नायक कहते थे ।


छत्रपति शिवाजी नामक पुस्तक के लेखक सुरेन्द्र नाथ सेन के अनुसार शिवाजी को अश्व सेना मे एक लाख पचास हजार कुल घोड़े और घुड़सवारथे। हाथी और हानियों की सेना की सं0 1260 थी। घुड़सेना के नियंत्रण के लिए 60 आफिसर थे। इसी प्रकार 10 हजार मांचल सेना के नियंत्रण व संचालन के लिए 36 कमान्डर नियुक्त थे । परसोजी भौंसले 4500 अश्वारोहियों का कमान्डर था, रूपा जी भौंसले भी 4500 घुड़सवारों का सेनापति था । ये दोनों बहलोल खां से युद्ध में लड़े थे और उसको पराजित किया था। तान सावन्त भौंसले गुर्जर भी मावल सेना के 36 कमाण्डरों में से एक था। शिवाजी ने एक सौ आठ नए किलों का निर्माण किराया था । अस्सी नए किले जीते थे । उन्नास किले व गढ़ जो टापू जैसे थे उसके पास पहले से थे । ये अस्सी किले कर्नाटक में थे। इस प्रकार लगभग 237 किलों का स्वामी शिवाज छत्रपति था।


शिवाजी को आदिल शाही, कुतुबशाही, निजाम शाही तथा मुगलशाही बार बादशहियों से संधर्ष व युद्ध करने पड़े थे उसके अतिरिक्त 22 समुंद्री शासकों से टक्कर ली थी। दक्षिण में एक प्रकार से शिवाजी ने किसी को पैर जमाने नहीं दिए थे बल्कि जोपहले से ही शासन कर रहे थे उनको जीना दूभर कर दिया । शिवाजी की इतन सेना और किले का निर्माण तथा दिन रात और लड़ाईयां चलती रहती थी इन सब का कार्यभार शिवाजी और उसके महान सेनापति प्रतापराव गुर्जर तथा उसके आधीन सैनिक तथा सैनिक अधिकारियों पर था। शिवाजी के विजय अभियानो में प्रतापराव गुर्जर के अतिरिक्त तानाजी गुर्जर का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। तानाजी गुर्जर ने सिंहगढ़ का किला जीता था लेकिन वह इस युद्ध में शहीद ो गया था। शिवाजी ने उस समय कहा था, गढ़ आया, सिंह गया । तानाजी बुत बहादुर गुर्जर था। 14 मार्च 1670 ई0 की चांदनी रात में 2 बजे उसने सिंहगढ़ पर 300 मावल सैनिको को लेकर चढ़ाई की थी और 38 वर्षीय उदयभान जो इस किले का कमाण्डर था उसे मार गिराया उसके 1500 सैनिक थे मगर तानाजी गुर्जर और उसके 300 सावलों के सामने वे नहीं टिक सके 200 मावल अपने छोटे भाई सूर्याजी के पास सुरक्षित छोड़ रखे थे । सिहंगढ़ का किला तो जीत लिया मगर तालाजी गुर्जर स्वय भी युद्ध में घयल होकर शहीद हो गए । तानाजी के भाई सूर्याजी ने रहे सहे उदयभान के सैनिकों को मार भगाया और इस प्रकार दोनों भाईयों ने इस किले को जीतकर शिवाजी की धाक उसके दुश्मनी और पक्की बैठा दी ।

विशेष सहयोग साभार : जड़ेंल सिंह बैंसला ग्वालियर

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