कट्टर हिंदुत्व से कट्टर तालिबान तक संबंध !

देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? 🕌 देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? भारत–तालिबान संबंध : वक्त की ज़रूरत हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की भारत यात्रा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोरी। यह यात्रा भारत–अफ़ग़ानिस्तान संबंधों को नए सिरे से देखने का अवसर प्रदान करती है। वर्षों तक दोनों के बीच संवाद सीमित रहा, पर अब भू–राजनीतिक परिस्थितियों ने दोनों को बातचीत की मेज़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। सवाल यह भी है कि — क्या तालिबान की वैचारिक जड़ें देवबंद से जुड़ी हैं, और क्या भारत को ऐसे समूह से संबंध बढ़ाने चाहिए? आइए इसे क्रमवार समझते हैं 👇 🕋 1. देवबंद और तालिबान का वैचारिक संबंध 🔸 ऐतिहासिक आधार दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 1866 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध धार्मिक और शैक्षणिक आंदोलन के रूप में हुई। इसका उद्देश्य था इस्लामी शिक्षा, नैतिकता और सामाजिक सुधार को पुनर्जीवित करना। 🔸 वैचारिक समानता, प्रत्यक्ष संबंध नहीं “तालिबान” शब्द का अर्थ है विद्यार्थी — उनके कई सदस...

राजनीति कैसे सीखें!

पॉलिटिक्स की पाठशाला


आओ खेलों से सीखें राजनीति!



1. ताश के खेल का मनोविज्ञान और पॉलिटिक्स


अगर आप ताश खेलते हो तो ,आपको मालूम है यह कई प्रकार से खेला जाता है।

इसमें कई खास बाते हैं जैसे ;


१* आपकी यादास्त अच्छी हो! आपने कितने पत्ते फेंक दिए! कितने और कौन कौन से सामने वालों ने फेंक दिए! कितने बकाया हैं!


२* आपका पार्टनर क्या चाहता है! और आप समझ पाए या नहीं! आप  अपने ही पार्टनर को यह समझा पाते हो या नहीं कि उसको क्या पत्ता फेंकना है!


३* विरोधी से क्या पत्ता छुड़वाना है! और उलझाना कैसे है!


कई बार होता है कि आपको पत्ते अच्छे नहीं मिलते और आपके पार्टनर को भी नहीं मिलते तब आपको विरोधी की गलती का इंतजार करना होता है। 

यह संयोग है और कभी कभी होता है।

ताश के पत्तों को हरेक राउंड में फेंटना होता है। फेंटना या पीसना एक ही बात है। यह काम हारने वाला करता है। यह लेबर है और यही लेबर विरोधी को आराम से बैठ कर राजा होने का एहसास करवाता है। बाकी तो फेंटने वाला गुलाम या मजदूर और उसका पार्टनर उसका हमदर्द होता है। वो हमदर्दी रखता है जैसे गरीब के प्रति उसका पड़ोसी या मध्यम वर्ग का व्यक्ति।


वो सिर्फ हमदर्दी रखता है क्योंकि उसका नंबर भी आने वाला है ,ना कि वो जानबूझ कर खुद फेंटने लगेगा। हम लोग भी ऐसा ही करते हैं। सत्ता में रहने वाला भी गरीबी का हमदर्दी बन कर रहता है लेकिन मदद नहीं करेगा।

खैर असली खेल अब इसके बाद शुरू होता है।
पहले राउंड में जीतने वाला खुशी से उछलता है और उसका पार्टनर हारने वाले के चिकोटा काटता है। यह पार्टनर एक प्रकार के सत्ताधीश (विजेता) के साथ रहता है और राजा के दरबारी का रोल निभाता है। 



शर्त या जुआ एक जीतने वाला हारने वाले से टैक्स वसूलता है वो सत्ताधीश शोषक राजा की भूमिका में होता है। प्रजा अर्थात पराजित खिलाड़ी टैक्स देगा ,वो भाग नहीं सकता।

अर्थात वो बंधा है खेल के नियमों से । प्रजा हो या विपक्षी भी ऐसे ही नियमों से बंधे होते हैं।  वो क्यों खेलने बैठा? वो बैठा गया तो खेलेगा। जीतेगा तो वो राजा बनेगा। वो शोषक बनेगा।
राजा और प्रजा बदल जाएगी। व्यवहार विजेता और पराजित का वैसा ही रहता है। कोई रहम नहीं और वो ही भाव और संवेग होंगे।

लेकिन पॉलिटिक्स देखें अब इस खेल में; 

सारा खेल दिमाग ,एकाकग्रता और फिर संवेगो को जगाने पर निर्भर है।जैसे जैसे हारेगा वो बेचैन होगा।

वैसे वैसे विजेता का दरबारी और विजेता राजा अपमानित करेगा। वैसे वैसे हारने वाला बड़ी रिश्क लेता है। यह रिश्क उसको अधिक हार के अवसर में बदल देती है।

Slavery age kingdome politics
यही गरीब जनता के साथ होता है। अमीर और शासक, बड़े प्रशासन, समृद्ध व्यक्ति की रिश्क उसको जीत में मदद करती है जबकि गरीब बेचैनी में गलतियां करता है। वो संवेगों से अधिक संचालित होता है। भावुक होता जाता है। ये गैर तार्किक क्रियाएं हैं। 

Middle age era slave king politics


वो हारने के या गलतियां करने के लिए उकसाया हुआ रहता है क्योंकि वो हौसला खोता जाता है और वो अधिक गरीब होता जाता है।

कभी कभी पत्ते अच्छे आ जाते हैं। इसको भाग्य कहते हैं।

दोस्तो! आम जिंदगी में भी जरूरी सबक याद रखें , जिंदगी में भाग्य ,सफलता, विफलता आपकी एकाग्रता पर अधिक निर्भर है। संयोग भी होते हैं लेकिन वो हर बार नहीं। अगर ज्यादा बार ऐसा होता है तो अच्छे से पत्ते फेंटने चाहिए और फिर वितरित कीजिए, भाग्य बदलेगा। विरोधी के जुमले और उकसावे से बर्बादी की लकीर मत खींचने लग जाना। यही हारे हुए पराजित राजनेता को समझ लेना चाहिए। 


खेल भी ऐसा ही होता है। आपको एकाग्रता और अपनी क्षमताओं को बढ़ाने पर जोर देना होगा! आखिरी समय तक लड़ना होगा!

राजनेता बनाना है या साधु या खिलाड़ी ,सब जगह ध्यान ,योग ,धैर्य और क्षमताओं पर भरोसा तथा अपने अवसर का इंतजार  करना सीखना होगा।


2. कब्बड्डी और राजनीति:


एक कहावत है, "कबड्डी में काका जी हो तो क्या फर्क पड़ता है!" अर्थात राजनीति में झिझक, शर्मीलापन, अवसर का इंतजार करने में उम्र निकाल देने में कोई मतलब नहीं ये सब निरर्थक हैं।  अवसर झपटना होता है, चाहे सामने कोई हो! साधु होना ,शिक्षक होना, व्यवसाई होना और राजनीति सब अलग अलग होती हैं।  आपको रेड डालना , अवसर सृजित करना, मौका ढूंढना, गिरफ्त में कोई रिश्क नहीं लेना, हर बार डांड (मुख्य लाइन) तक सुरक्षित पहुंचना और फिर अपने समूह में लौटने तक सुरक्षित रहना, तीव्रता और चपलता जरूरी है। दार्शनिक प्रवृत्ति नहीं भौतिक प्रवृत्ति सक्रिय रखनी होगी।
टीम भाव , साथी का हाथ पकड़ना ,छोड़ना और विपक्षी के मजबूत संगठन बनाना राजनीति के जरूरी सबक हैं।

लाल कृष्ण आडवानी और नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सफर की कहानी और हकीकत से रूबरू हो  सकते हो।

दंड और पुरस्कार का उपयोग आना चाहिए।

हर बात में और हर क्रिया में आपका लक्ष्य खेल या राजनीति जो भी हो वो ही होना चाहिए। 

एक राजनेता को चिंतन, कार्यों और जीवन के हरेक फैसले में राजनीति देखनी होगी।

राजनीति और खेल कभी भी पार्ट टाइम नहीं होते।

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