कट्टर हिंदुत्व से कट्टर तालिबान तक संबंध !

देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? 🕌 देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? भारत–तालिबान संबंध : वक्त की ज़रूरत हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की भारत यात्रा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोरी। यह यात्रा भारत–अफ़ग़ानिस्तान संबंधों को नए सिरे से देखने का अवसर प्रदान करती है। वर्षों तक दोनों के बीच संवाद सीमित रहा, पर अब भू–राजनीतिक परिस्थितियों ने दोनों को बातचीत की मेज़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। सवाल यह भी है कि — क्या तालिबान की वैचारिक जड़ें देवबंद से जुड़ी हैं, और क्या भारत को ऐसे समूह से संबंध बढ़ाने चाहिए? आइए इसे क्रमवार समझते हैं 👇 🕋 1. देवबंद और तालिबान का वैचारिक संबंध 🔸 ऐतिहासिक आधार दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 1866 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध धार्मिक और शैक्षणिक आंदोलन के रूप में हुई। इसका उद्देश्य था इस्लामी शिक्षा, नैतिकता और सामाजिक सुधार को पुनर्जीवित करना। 🔸 वैचारिक समानता, प्रत्यक्ष संबंध नहीं “तालिबान” शब्द का अर्थ है विद्यार्थी — उनके कई सदस...

पुष्पा फिल्म;आर्थिक असमानता,अपराध और आइना : समीक्षा

 पुष्पा, आर्थिक असमान भारत और अपराध: फिल्म समीक्षा



1970/80 के दशक में अमिताभ बच्चन सुपर स्टार बना उसके पीछे की वजह गरीब और आर्थिक बदहाल भारत के गुस्से की अभिव्यक्ति अमिताभ की फिल्मों में एंग्री यंग मैन के रूप में होना भी एक वजह थी। युवाओं ने अपने सीने पर "मर्द" लिखवाना फैशन बना लिया था, गोया घोर गरीबी, शोषण और अन्याय से पीड़ित इंसान अपने आपको दिलासा देता और अपने दर्द को "मर्द के कभी दर्द नही होता" डायलॉग में छुपाता।

उस समय सरकारी और गैर सरकारी मिलों में कामगार अकसर हड़ताल करते और गरीब इंसान दो वक्त की रोटी के जुगाड के साथ ही अमिताभ की फिल्मों की बातें करता था। वो फिल्में युवाओं को स्वप्न दिखाती और युवा पैसा, सम्मान और प्यार के दिवस्वप्नी नशे की भूल भुलैया में जवानी गुजार रहा था। तब भारत कठिन दौर से गुजर रहा था, पाकिस्तान और चीन से युद्ध, खाद्यान्न संकट, बढ़ती जनसंख्या, आंदोलन इत्यादि। इसी गुस्से ने सशक्त सत्ताधीश इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया।

आज 2021/22 में दुनिया की आर्थिक मंदी,भारत में नोट बंदी, कोविड आपदा के बाद सांप्रदायिक तनाव और आर्थिक  बदहाली, असमानता तथा बेचैन,गुस्सा, मजाक, मीडिया, सोशल मीडिया के नशे में युवा खुद को उलझा हुआ महसूस कर रहा है।

फिल्म के प्रारंभिक दृश्य में लाल चंदन के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तस्करी के जाल को दिखाया है, जिसमें एक महंगा वाध्यव्यंत्र कोई व्यक्ति जापान के मार्केट में खरीद रहा है, जिसके वहां तक पहुंचने की कहानी से खरीददार बेखबर है। दुनिया में कितने ही हैरतंगेज काम होते हैं, जिनके बारे में हम बिना जाने चमक दमक की दुनिया में सहज सुलभ मानते हैं। हम जो महंगी जैकेट पहने हुए हैं वो किसी जानवर की 'क्रूरता से की गई हत्या' और उसकी चमड़ी के निर्दयतापूर्वक छीलने का परिणाम हो सकती है । जो महंगा ज्वैलरी सेट प्रेयसी को भेंट करने जा रहे हो, वो तस्करी के मार्ग से आया हो सकता है और उसका माध्यम बना कोई एक महत्त्वाकांक्षी युवा जेल में हो सकता है। या फिर आपकी फर वाली कोट बिना टैक्स चुकाए पंहुची हो। हम बेखबर हो,भागती दुनिया में जी रहे हैं।

तमिल फिल्म पुष्पा एक साधारण कहानी है, जिसमें एक पद्दलित  मां अपने बेटे को पाल पोस कर बड़ा करती है। बेटा आर्थिक बदहाली में तो है लेकिन समाज के तानों और छिछालेदारी से स्वाभिमान के लिए लड़ाई का रास्ता चुनता है और साहसी फैसले कर अपराधी दुनिया में प्रवेश करता है।  जब एक डायलॉग बोला जाता है "झुकेगा नही", तब इंसान के अंतरतम में छुपे आत्म सम्मान की ललक को झिंझोड़ता है।

 साधारण कॉस्ट्यूम और उलझे हुए बाल जिंदगी के सुलझने की कसमकस में फसे इंसान को अपने होने का एहसास करवा कर उठ खड़ा होने को बेताब करती फिल्म है।

आखिर भारत ही नहीं पूरी दुनिया में पुष्पा फिल्म का प्रभाव देखा जा सकता है तो क्यों? हॉली वुड के टक्कर की फिल्म में क्या है जिसकी वजह से वो प्रसिद्ध हुई! आइए जानने का प्रयास करते हैं:-

1. फिल्म की स्टोरी बहुत सीधी और सरल है तथा पात्र धरातल से जुड़े हैं।

2. फिल्म के  मुख्य पात्र  हीरो और हीरोइन को पैसे की तो जरूरत है लेकिन आत्मसम्मान को तवज्जो देते हैं। एक जगह पुष्पा 5% कमीशन को घटा का 4% लेना तय करता है और मनोवैज्ञानिक रूप से गैंगस्टर पर बढ़त बना कर साझीदार जैसा बन बराबरी की भूमिका में आ जाता है। वहीं हीरोइन को जब हीरो "पैसे" दे कर फुसलाता तो है और मजबूरी में पैसे से बहुत सी महिलाएं आत्मसम्मान से समझौता कर भी लेती हैं लेकिन अपनी आत्मा को मार कर,लेकिन फिल्म में जब हीरो एक हद से आगे बढ़ता है तो वो पैसे को ठोकर मार अपने आत्म सम्मान को चुनती है। यह आत्म सम्मान हरेक लड़की में होता है।

 आज जबकि सब जगह पैसे से सब बिकता है की स्थिति बनी हुई है तब आज का युवा इसको स्वीकार नहीं करना चाहता है और सर उठा कर जीना चाहता है।

3. फिल्म में पुलिस की भूमिका को धरातल पर दिखाया है और क्षदम ईमानदारी के आवरण में लिपटी पुलिस को बेनकाब कर अपराध और राजनीति से संबंध को उजागर किया है। 

कमोबेस  यह मशहूर उपन्यास "गॉड फादर" जैसी कहानी है जिसमें राजनीति, अपराधी, पुलिस और न्यायपालिका का गठजोड़ बड़ी साफगोई से बताया गया है।


4. नोटबंदी, निजीकरण, बढ़ती मंहगाई, सांप्रदायिक वातावरण,किसान आंदोलन, कोरोना महामारी और राजनैतिक मूल्यों के पतन ,खरीद फरोख्त से युवा अब उकता गया है। उसे अब भय से निकल कर आत्म समान की जिंदगी चाहिए।

 5. फिल्म में प्राकृतिक दृश्यों के साथ संसाधनों की अवैध लूट को भी दिखाया है जो आज आम बात समझी जाती है। फिल्म वीरप्पन के उदय और पतन की याद ताजा करती है।

दुनिया के कई देशों में सोशल मीडिया से सत्ताएं बदल गई। अनेक देशों में आतंक और आर्थिक मंदी से हालात खराब हैं और युवा "पुष्पा" की तरह स्वस्थ दिख कर भी टेढ़ा शरीर लिए बदहाल हालात में भी "सब चंगा सी" की तर्ज पर अच्छा दिख रहा है।

 फिल्म के निर्माता और निर्देशक के साथ साथ कहानी रचनाकार और कैमरा मैन ने अच्छा काम किया है।

टिप्पणियाँ

  1. बहुत शानदार समीक्षा की सर आपने।🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. Salute your writing skill ! A reading ability owner would like to read at once it !!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही अच्छा लेख गुरु जी

    जवाब देंहटाएं
  4. Grounded explanations including each sector on socio.economics religion

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अगर आपका बच्चा Arts Stream में है तो Sociology जरूर पढ़ाएँ

स्कूल व्याख्याता, असिस्टेंट प्रोफेसर और नेट जेआरएफ, AHDP या LSA के लिए महत्वपूर्ण पुस्तक सूची

जीवन में सफलता के लिए 8 बेस्ट टिप्स