मनुष्य का स्वभाव,समाज और आवश्यकताओं के संतुलन का गेम:
मनुष्य की मूल प्रवृत्ति "खुद के वजूद के होने" का एहसास करवाने और सत्ता स्थापन की होती है। वह इसके लिए विभाजित करता है और खुद को समूहों में विभाजित करता है। लोगों को बांटता है। मनुष्य सदैव ही असुरक्षित महसूस करता रहता है इसलिए वो अधिक कस कर दूसरों को अपनी गिरफ्त में करता है।
समाज, संस्कृति, राजनीति और अर्थशास्त्र ये सभी मानव प्रकृति के बाय प्रोडक्ट हैं। मनुष्य का स्वभाव समझने के लिए इनको जानना भी कम रोचक नहीं है।
सत्ता और जनता के संबंध की प्रकृति भी प्रेमी- प्रेमिका की तरह होती है। दोनों बराबर अपने होने का एहसास देखना चाहते हैं। दोनो एक दूसरे को समय समय पर पीड़ा देते हैं लेकिन छोड़ नही सकते। इतिहास गवाह है बिना मुखिया के कोई समाज ,समुदाय नही रहा।गोया अधीनता और गुलामी स्वभाव में है।
मनुष्य श्रेष्ठ में से श्रेष्ठ चुनता है और तुलना करता है। जब अधिक बेहतर मिलता है तब उसकी तरफ आकर्षित होता है। इस बात को प्रत्येक मनुष्य अपने अनर्तम में जानता है इसलिए वो अपने करीबियों से भी डरता है और उन पर सत्ता स्थापित करने का निरंतर प्रयास करता है।
प्रेमी प्रेमिका भले ही एक दूसरे पर विश्वास होने का दिखावा करें , लेकिन एक पल में ही कलई खुल जाती है।
सत्ता और जनता भी एक दूसरे को कस कर पकड़े रखते हैं। मानो उनका वजूद उनके होने में ही है।
"*सत्ता पीड़क और स्वप्न सुंदरी होती है:सत्ता और जनता का संबंध एक प्रेम संबंध की तरह होता है।*"
सत्ता कोड़े बरसाती है और बदले में स्वप्निल भविष्य का आश्वासन देती है। कमोबेश ऐसा ही प्रेमी प्रेमिका के बीच का संबंध होता है। वो परस्पर तकलीफ देते हैं और प्यार का एहसास करते करवाते हैं।
हाथियों में हथिनी दो श्रेष्ठ हाथियों की जंग देखती है और जो जीता वो ही समूह का मालिक और हथिनी की पसंद होता है।
मनुष्य रंग , जाति, धर्म और भाषा अथवा किसी भी आधार पर विभाजित करने और होने का बहाना खोजता है। फिर वो अपनी पसंद थोपता है और अपने होने का एहसास करवाता है। सभ्य होने का दिखावा करता हुआ अमेरिका हो अथवा मानवतावाद का दिखावा करने वाला फ्रांस, भारत या कोई भी देश हो और उसकी कोई सत्ता हो ,वो सभी जगह विभाजित हैं, आज भी और भविष्य में भी होंगे। वो आवाम को विभाजित रखने में ही हित खोजते हैं।
दुनिया के अनेक देशों में आतंकवादी संगठन वहां के लोगों को ,बच्चों और महिलाओं तक को धर्म, संस्कृति, जाति और वजूद के नाम पर अपने साथ जोड़ लेते हैं और उनको मौत के दरवाजे तक बहादुरी दिखाने,वजूद के लिए लड़ने, समूह के लिए बलिदान देने के लिए तैयार करते हैं। मनुष्य सपने देखने की बड़ी कमजोरी रखता है। ये सपने वजूद और उपभोग के लिए होते हैं। दूसरे शब्दों में कहना चाहिए केवल अपनी सत्ता, संस्कृति, पहचान के अस्तित्व तक नही बल्कि उससे आगे दूसरों पर थोपने तक के होते हैं। संघर्ष की वजह यहां से शुरू होती है।
एक समूह को शत्रु करार दे कर दूसरे समूह को शिखंडी की तरह आड़ में अपने आगे खड़ा करती है। पहली मार भी आवाम सहता है। वो सत्ता की अय्यासी के लिए पसीना बहाता है ,वो सत्ता के कोड़ों का एहसान जताता है और जय जय कार करता है।
लेकिन इतना होते हुए भी परस्पर संतुलन है। कमजोर और कमतर के प्रति भी सोच रखने वाले दुनिया में बराबर जन्म लेते हैं और वो बहुत कम संख्या में होते है। समस्त विश्व में ऐसे महान व्यक्तित्व एक प्रतिशत से भी कम होते हैं। दुनिया की व्यय था का भार उन पर होता है बाकी सत्ता बिखेरती है वो समेटने के लिए पैदा होते हैं।व्यवस्था संचालक ब्यूरोक्रेट्स भी बहुत कम संख्या में होते है।
परिवर्तक और क्रांतिकारी शख्शियत चाहे महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर, चे ग्वेरा या फिर चिंतक सुकरात हो, ये समाज और संस्कृति की नाडी तंत्र में सदैव ही जीवित इसलिए रहते हैं क्योंकि पीड़क सत्ता से मनुष्य जब कभी उकता जाता है और ना उम्मीद होता है तब प्रेमी और प्रेमिका की तरह दूसरों के बारे में सपने आने का सुखद एहसास अंतर्मन में करते हैं। इसी अंतर्मन में झांकने के लिए सत्ता और जनता तथा प्रेमी तीसरी आंख रखते हैं और खतरे का एहसास होते ही पीड़ा देना शुरू करते हैं।
निस्वार्थ कुछ नही होता। मनुष्य जानवरों से प्रेम उसके उपयोगी होने तक ही करता है। ऐसा ही सत्ता और जनता तथा प्रेमियों में होता है।
जीवन का आखिरी दौर सभी का तकलीफदेह होता है।
नर मधु मक्खी मेटिंग के तत्काल बाद मृत्यु को प्राप्त हो जाता है , यह जानते हुए कि समागम के बाद मृत्यु निश्चित है फिर भी उसके होने न होने का अंतिम अवसर वही होता है। मनुष्य भी एक दिन कमजोर, झुका हुआ हड्डियों का बेरंग ढांचा होता जाता है। वो जितना कमजोर होता जाता है उतना बेबस होता जाता है। वो अधिक गुस्सा करता है और चिल्लाता है। इसको परिवार के सदस्य भी अनसुना करते हैं , क्योंकि उनका दौर है वो भी सत्ता में हैं। यही कम्युनिकेशन गैप है जो भरा जाना युवा अवस्था से ही जरूरी है ,यह जानते हुए कि अंजाम नजदीक है और एक दिन उसे भी ऐसा होना है।
बुढ़ापे की तैयारी 40 के बाद ही कर देनी चाहिए। अपनी बचत, शरीर की गतिविधियों, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और शौक इस तरह के बनाएं जो लंबे और टिकाऊ हों। जितने आप 40 के बाद आत्म निर्भर होने की आदत डालो उतना ठीक है।
बाहरी खुशियों की ज्यादा उम्र नही होती लेकिन अपने अंतर्मन में पली बढ़ी सृजनात्मकता में अनंत खुशियां होती हैं।
मनुष्य अपनी नई पीढ़ी को सक्षम बनाना चाहता है, चाहे बुढ़ापे के सहारे का स्वार्थ ही हो ।
मातृत्व जीव जगत का सर्वश्रेष्ठ सृजन है, जिसमें सत्य और शाश्वत समर्पण निहित होता है। मातृत्व सुख में अपने खुद के शरीर के भाग और लहू से दुग्ध ग्रंथियों के माध्यम से पृथक अस्तित्व का सृजन होता है। प्रत्येक जीव जगत और समस्त सृष्टि में इससे बड़ा कोई त्याग नही होता है। ऐसे महान त्याग में भी सत्ता प्रभावी होती है। दुनिया में सभी जगह खाना महिला ही बनती है। माता को उसी पुत्र के अधीन रहना होता है जिसका वजूद ही उसकी वजह से है।
हम सत्ता से अलग नहीं रह सकते। सत्ता की चाह हमारे लहू में है। हम अधीन भी रहना चाहते हैं जैसे प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे के लिए समर्पण की प्रतिस्पर्धा करते हैं।
हम विद्रोही आमतौर पर नही होते लेकिन जब कभी सत्ता समाप्त होती है। शक्ति क्षीण होने लगती है हम "खट्टे हैं अंगूर" वाली बात कर दूसरों में बुराई खोजने लगते हैं।
इसलिए महात्मा बुद्ध ने सर्वत्र दुख के वजूद होने को शास्वत वजूद होना प्रत्यक्ष देखा।
मनुष्य को निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए, आजीवन लड़ना होता है सत्ता से और अपने वजूद के लिए। एक उमर के बाद अधीनता अच्छी नहीं लगती तब जब जीवन बेरंग होने लगता है। हार्मोन नाड़ियों में सूखने लगते हैं। रूमानियत मंद पड़ने लगती है। तब हमें समर्पण पसंद नही होता। हम तब खुशी के लिए अलग चीजें ढूंढने लगते हैं। कुछ लोग अपनी मौत भी कुर्सी पर ही होने देना चाहते हैं। परिवार में जब आप पराधीन होने लगते हैं तब एक बार फिर लड़ते हो लेकिन दुखद पराजय मिलती है। चुप रहने में गरीमा समझ आने लगती है।
तो दोस्त जीवन की सच्चाई है मजबूत बनो और अपने बच्चों को उन अंतिम दिनों पर काम आने के लिए तैयार कीजिए। वो भी ऐसा सीखेंगे। इसके लिए सक्षम बनोगे तभी बनाओगे।
इसलिए
१* न तो इतना झुकें कि आप सीधा खड़े होने पर भी शर्मिंदा महसूस करो और न किसी को अपने सामने झुकने का एहसास कराओ कि कभी आपके बुरे दिनों में आपको दुखद एहसास न करना पड़े।
२* किसी का अपमान करने से पहले हजार बार सोचें क्योंकि यह आपके कमजोर होने का प्रमाण है। आपके सामने विकल्पहीनता है।
३* संबंध बनाने में अभिरुचि विकसित करें क्योंकि संबंध प्रॉपर्टी है। मानव संबंध कभी निरर्थक नही होते।
४* प्रशंसा करना मतलब प्रशंसा का बैंक लोन देना होता है। आपको ब्याज सहित मिलेगी।
५* परेशानी में सभी संबंधों को अंधाधुंध उपयोग में नही लेना चाहिए। आपका प्रभाव कमजोर होता है। ताला चाबी का संबंध होता है। एक काम एक खास व्यक्ति ही कर सकता है सभी चाबियां एक ताले में नही हैं उपयोगी।
तो आइए अतिवाद से संतुलन बनाएं,अपनी सत्ता और समर्पण में संतुलन बनाएं।
कभी उन्हें भी याद कीजिए जो कभी बचपन में आपके दोस्त थे और आज पिछड़ गए हैं।
कभी उन्हें भी याद कीजिए जिनके पास आज कुछ नही लेकिन आपके लिए सम्मान उनके दिलों में है आप बात कर के देखिए। आजमाइए आज ही उनको जो पीछे छूट गए जिंदगी की दौड़ में।
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Photo credits PEXEL
गुरुदेव आपके विचारो में खुद से लेकर पूरी सृष्टि तक का सार स्पष्ट दिखाई देता है ,वास्तव में बहुत ही ज्ञान वर्धक है
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंबहुत सुंदर लेख..
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमैं पूरा नहीं पढ़ पाया पर लगता है आप का सिद्धांत अमानवता का सिद्धांत ज़्यादा है, ऐसे लगता है जैसे मार काट ही मानव की प्रवृति है। परस्पर अस्तित्व का कोई महत्व ही नहीं। सत्ता और जनता का सम्बंध बिना सिर पैर वाला है। कृपया मानवता के असीम प्रेम को महसूस करे, जिसमें दया, मदद और ममता है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंयह मानवतावादी ही है। मानव की मूल प्रवृत्ति को समझे बिना मानव हो ही नही सकते। इसमें कहीं भी हिंसा का समर्थन नहीं है।
हटाएंश्रीमान जी आलेख पूरा जरूर पढ़ें
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सर 👍👍
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावनात्मक लेख,एक सम्पूर्ण मानव की जिंदगी का मार्मिक चित्रण,सौंदर्य भाव,समाज एवं सांस्कृतिक सूत्र पिरोए हुए बहुत ही तार्किक एवम् संदर्भित लेखक,मज़ा आ गया पढ़के,बहुत सुंदर लेख जैसे अपनी ही जिंदगी से कहीं ना कहीं सुमेलित होता हो,भावपूर्ण एवम् औचित्यपूर्ण लेख 🙏🙏
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