भारतीय संसद की डेमोग्राफी : बूढ़ी होती संसद
14 वी संसद की औसत आयु 52.2 वर्ष, 15 वीं में 53.7 वर्ष , 16 वीं में 53.86 वर्ष और 17 वीं में 54 वर्ष औसत आयु है हमारे सांसदों की जो कि विश्व में सर्वाधिक बूढ़ी संसद बन गई है।
1998 में 46.4 वर्ष,1952 में 46.5 वर्ष औसत आयु के सांसद थे। लेकिन युवाओं और महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रूप से नही बढ़ी।
शैक्षणिक योग्यता के आधार पर देखें तो 394 अर्थात 43% सांसद स्नातक, 27% 12 वीं पास सांसद हैं। ,1996 में 75% स्नातक सांसद थे जो अब तक की सर्वाधिक शिक्षित संसद थी।
राजनीतिक भागीदारी और राजनीति में कैरियर दो अलग-अलग बातें हैं। इसलिए दोनों का अंतर समझ लेना जरूरी है ।
जनमत, नेतृत्व और चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी इत्यादि समस्त बातें इसमें आती है। युवाओं की भागीदारी इन सभी में वर्तमान में बढ़ती जा रही है इसके सकारात्मक व नकारात्मक दोनों परिणाम सामने है । जनमत निरंतर उम्र के मामले में गतिशील रहा है । आज युवा है कल प्रोढ और फिर वरिष्ठ होगा। इस प्रकार उम्र के आधार पर कमतर या प्राथमिकता नहीं दी जा सकती , सभी उम्र के नागरिक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन जितना जल्दी युवा जनमत निर्माण व राजनीतिक प्रक्रियाओं के प्रति जागरूक व समझदार होगा तथा प्रशिक्षित होगा वह उतना ही लोकतंत्र और पुनर्निर्माण के लिए बेहतर होता है । 1987 में 18 साल से ही मताधिकार का अधिकार दिया जाना भारतीय राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन था।
राजनीति में कैरियर या भविष्य देखने वाले युवाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है । नेतृत्व व विभिन्न विषयों तथा समस्याओं के साथ-साथ मुद्दों के प्रति और जनमत निर्माण में मंथन होता है। प्रतिस्पर्धा अधिक होती है जिससे अधिक बेहतर नेतृत्व का उदय होता है। जो सामाजिक बेहतरी के लिए निर्णय लेने की क्षमता रखता है तथा व्यक्तिगत और सामाजिक जरूरतों, मुद्दों और आवश्यकताओं से समन्वय अधिक सकारात्मक कर पाता है, वही उभरकर सामने आता है ।
एक बात अच्छे से समझ लेने की आवश्यकता है;राजनीति में भविष्य तलाशने वाले युवाओं और आमजन की सोच में अंतर है। जो राजनीति में कैरियर तलाशने वाले हैं वे व्यक्तिगत लाभ के लिए राजनीति में आते हैं जबकि जनता अपने हितों को प्राथमिकता देती है। इसलिए युवा नेतृत्व के समक्ष बड़ी चुनौती इस बात की है कि वह स्वयं और जनहित में से किस को प्राथमिकता देता है तथा उनसे कैसे समन्वय बनाकर कैरियर बना पाता है।
1. एक कार्यकर्ता के रूप में
2. प्रचारक के रूप में
3. मीडिया प्रबंधन और सोशल मीडिया क्षेत्र में
4. प्रबंधक और टीम प्लानर के रूप में
5. जनमत निर्माण के लिए मुद्दों की पहचान और प्रस्तुतिकरण के रूप में
6. चुनाव में भागीदारी के रूप में
1. जातिगत एवं सांप्रदायिक मुद्दे
2. आर्थिक स्थिति
3. व्यक्तिगत पूर्वाग्रह, जैसे - किसी के संबंध में एकतरफा राय रखना, अड़ियल रवैया, समन्वयकारी न होना।
4. व्यक्तित्व और मनोवैज्ञानिक स्वभाव। आदर्श और व्यक्तिगत व्यवहार में विरोधाभास होना।
5.उचित समय पर उचित निर्णय और मुद्दों की पहचान व जनमत समझने की चुनौती।
6. उच्च स्तर पर समन्वय, संचार, संपर्क रखना तथा वैचारिक स्पष्टता व अनुशासित होना व साथ में ज्ञान व संसाधनों में सामंजस्य। यह बड़ी चुनौतियां जो युवाओं के राजनैतिक कैरियर को प्रभावित और निर्धारित करती हैं।
1.सभी को एक साथ जोड़ कर राष्ट्रीय व सामाजिक एकता तथा विभिन्न विरोधाभाषों में समन्वय कर सकते हैं। 2.वैचारिक आधुनिकीकरण, सचिन पायलट तथा संयुक्त अरब अमीरात की प्रिंस जैसे व्यक्ति राजनीति में अधिक गतिशीलता लाते हैं । युवा नेतृत्व आधुनिक दृष्टिकोण को सामाजिक और राष्ट्रीय परिदृश्य पर लाते हैं ।
3. समस्याओं का समाधान होने के प्रति जनता में उम्मीद और हौसला जगाते हैं। समस्याओं के समाधान के प्रति आश्वासन मिलता है ।
4. जानता का दृष्टिकोण बदलता है। आर्थिक नवाचार स्थापित करते हैं। परिवर्तन के प्रति भय मुक्त संस्कृति का निर्माण होता है ।
5. डायनेमिक नेतृत्व का विकास होता है । महिलाओं की भागीदारी अधिक उदारता से होती है। सामूहिक भागीदारी के प्रति सकारात्मकता होती हैं । युवाओं के प्रभुत्व से अनुशासित जन समर्थन मिलता है। सक्रियता की भावना उत्पन्न होती है। युवाओं में नवाचार का दृष्टिकोण तथा संवेदनशीलता उत्पन्न होती है।
विद्यार्थी राजनीति में मास्टर क्वालिटी कैसे विकसित करें
विद्यार्थी देश की नसों में उबाल लेता भावी जनमत और आकांक्षाएं होती हैं। मीडिया की भूमिका ग्लोबलाइजेशन ,लैंगिक समता और आधुनिक मुद्दों को ध्यान में रखते हुए विद्यार्थियों के लिए राजनीति के प्रति जागरूकता के दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह संपूर्ण देश की आधारभूत राजनैतिक सोच में बदलाव लाने के साधन है । यद्यपि अनियंत्रित युवाओं की अति भागीदारी तथा संवेग व भावनाओं से राजनीति करना किसी भी समाज और देश के लिए खतरनाक भी होता है।
युवाओं की राजनीतिक सक्रियता एवं भागीदारी उचित अनुचित का विषय नहीं है। यह तो अनिवार्य आवश्यकता है, लेकिन युवा जब कम शिक्षित और धार्मिक, जातिगत और भावनात्मक मुद्दों पर पूर्वाग्रह रखकर भागीदार होते हैं, तब यह विनाशक होता है।
1. राष्ट्रीय और स्थानीय समस्याओं के प्रति समझ बढ़ाएं।
2. व्यापक दृष्टिकोण विकसित करें और व्यक्तिगत हितों के बजाए सार्वजनिक हितों के प्रति सोच रखें।
3. सभी खुश नहीं हो सकते लेकिन सभी आकांक्षा रखें आपमें या आपसे उम्मीद रखें ऐसे कार्य और व्यवहार को दैनिक जीवन में ढालें।
4. व्यवहारिक और नए कार्य करें तथा समाज में एक उदाहरण बनें।
5. किसी को आगे बढ़ने से रोकने के बजाए आप खुद की योग्यता का प्रदर्शन करें। छोटी लकीर को बड़ी दिखाने के लिए बड़ी को काटने के बजाए आप बड़ी लकीर खींचने की कोशिश करें।
6. आलोचनाओं से बचें। दोस्त बनाएं चाहे आपके विपरीत विचार रखता हो।
7. अपने व्यवहार और कार्यों का विचारों से मेल हो ना कि विरोधाभास
8. जिस दल और नेता के आप अनुगामी हो उसके प्रति निष्ठा रखें।
9. अपनी वाक् कला सुधारें ,इसके लिए पूर्व तैयारी करें।
10. छोटे से छोटा काम खुद करें और निम्न तबके के लोगों से मिलें और उनको समझें।
11. सामाजिक इंजियरिंग को समझें यह भविष्य की जरूरत है।
12. दूसरो के विश्वसनीय बने तभी आपके विश्वसनीय दोस्त बनेंगे।
13. आर्थिक सक्षमता अति आवश्यक है इसके लिए व्यवसाय पर फोकस रखें। लोगों को रोजगार दे सकें ऐसा कार्य स्टार्ट करें।
14. अधिकारवादी नहीं ,मित्रता भाव पैदा करें। लोकतंत्र में यकीन रखें।
15. अच्छे गुणों की प्रशंसा करें चाहे आपका विरोधी ही हो।
महिलाएं 1951 में 5%, 2014 में 14% अर्थात 62, 2019 में कुल 64 अर्थात 17% महिलाएं संसद में
दुनिया में रवांडा में 61%, दक्षिण अफ्रीका में 43% महिलाएं संसद में प्रतिनिधित्व रखती हैं।
युवाओं की भागीदारी में कहीं न कहीं महिलाओं की भागीदारी कम है। यह सामाजिक न्याय, मानव अधिकारों, सांस्कृतिक नवाचार और आर्थिक क्षमता की दृष्टि से सही स्थिति नहीं है। महिलाएं न तो वर्गीय स्थिति रखती हैं और न संगठन, जो महिला भागीदारी आधारित निर्णय लेकर लैंगिक आधार पर जनमत परिवर्तन कर सकें। श्रमिक वर्ग में आर्थिक मुद्दा सभी के लिए सामान्य होता है और ऐसा कोई भी संगठन जो मुद्दों के आधार पर एक मुद्दे के आधार पर जनमत का निर्माण कर सकता है। वह लेने देन के आधार शर्तें थोप सकते हैं।
इधर लैंगिक आधार पर दुनिया में कहीं भी जनमत नहीं प्रभावित हुआ। भारत में संसद व विधानसभाओं में महिला भागीदारी 33% करने की कई बार बातें हुई ,लेकिन अभी तक ऐसा कोई परिवर्तन नहीं हुआ । महिलाएं एक तरफा जनमत नहीं बना पाती क्योंकि वे परिवारों में विभाजित हैं। उन्हें अपना नेता महिला चाहिए या नहीं ! उनको इस बात से फर्क पड़ता है या नहीं !
इन बातों पर कोई एक सामान्य चेतना नहीं हो पाती है। इसलिए युवा वर्ग की भागीदारी संतुलित नहीं है। ग्रामीण भारत में निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी पुरुषों की ही प्रभावी है। महिलाएं बेहतर शिक्षा के बावजूद राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में प्रभावशाली नहीं है । इन सब के अनेक सामाजिक- सांस्कृतिक और आर्थिक कारण हैं।
परंपरागत समाज और सांस्कृतिक उत्तरदायित्व महिलाओं पर अधिक होते हैं। लैंगिक भेदभाव बचपन से ही होता है। पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर राजनीतिक चर्चाओं में महिलाओं को तवज्जो कम दी जाती है। राजनीतिक भागीदारी और निर्णय प्रक्रिया में लड़कियों की खुली भागीदारी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ दी जाती है। यह पुरुष प्रभुत्व को चुनौती के रूप में देखी जा सकती है अथवा प्रतिष्ठा क्षति के रूप में भी। विवाह से पूर्व और विवाह के बाद दोनों स्थितियों में निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी के मामले में महिलाओं की प्रस्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं होता है। बस एक खुले नियंत्रण से बंद नियंत्रित में जाने जैसा ही है।
इस सब का एहसास स्वयं महिलाओं को भी नहीं होता है, क्योंकि बचपन से बड़े होते होते ,समाजीकरण से मानसिकता ही इस तरह की बना दी जाती है, कि स्वयं महिलाएं अनिच्छुक व वैचारिक रूप से निर्बल हो जाती हैं। सामाजिक- राजनीतिक पृथक्करण से कम्युनिकेशन स्किल और नेतृत्व कौशल विकसित नहीं हो पाता है।
अमेरिका व यूरोपियन देशों में भारतीय उपमहाद्वीप और अन्य परंपरागत समाजों में सांस्कृतिक परिवेश भिन्न होता है । तीव्र औद्योगिकरण, नगरीकरण, उपनिवेशीकरण, दो बड़े विश्वयुद्ध इत्यादि से महिलाओं के श्रम बल की आवश्यकता तथा उनकी स्वतंत्रता की जरूरत उत्पन्न हुई । इसी प्रकार अन्य कारण पुरुषों के प्रवास तथा सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक और यहां तक कि स्वयं के अस्तित्व के प्रति दृष्टिकोण बना। जागरूकता के साथ सक्रिय भागीदारी उत्पन्न हुई । जिस कारण से वहां की महिलाएं स्व नियंत्रण तथा निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी में सक्रिय हैं।
भारतीय समाज में राजनीति में लैंगिक परिप्रेक्ष्य बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।
महिलाओं को पारिवारिक स्तर पर सहयोग अपेक्षित है और साथ ही उच्च स्तर पर परस्पर मेल जोल भी।
एक अध्यापिका जब कलेक्टर महिला से मिले तब महिला को संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए ताकि उसका प्रभाव अधिक पड़े।
एक महिला नेता द्वारा अपने परिवार, भाई भतीजावाद के इतर महिला अधिकारियों को तवज्जो देना चाहिए।
उच्च शिक्षा महिलाओं के लिए आवास सहित फ्री होनी चाहिए।
बालिका स्कूलों और महा विद्यालयों में पर्सनेलिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम चलाया जाना चाहिए।
धीरे धीरे व्यापक सेनेरियो बदला जाना आवश्यक है।
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राजनीति में युवाओं और महिलाओं की स्थिति को जागरूक करने वाला शानदार लेख
जवाब देंहटाएंThank you krishan
हटाएंExcellent points highlighted sir and this is a very relevant topic today. We need more of such initiatives.👌👏💯
जवाब देंहटाएंThank you Pooja ,you always appreciate me
हटाएंराजनीति में युवाओं की और महिलाओं की भागीदारी निश्चित रूप से बड़ी है पर इस क्षेत्र में इनकी भागीदारी और अधिक सुनिश्चित करनी होगी सरकार और समाज दोनों को यह सोचना होगा कि युवा और महिलाएं हमारी राजनीति में और अधिक आये। बहुत शानदार आलेख
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