कट्टर हिंदुत्व से कट्टर तालिबान तक संबंध !

देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? 🕌 देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? भारत–तालिबान संबंध : वक्त की ज़रूरत हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की भारत यात्रा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोरी। यह यात्रा भारत–अफ़ग़ानिस्तान संबंधों को नए सिरे से देखने का अवसर प्रदान करती है। वर्षों तक दोनों के बीच संवाद सीमित रहा, पर अब भू–राजनीतिक परिस्थितियों ने दोनों को बातचीत की मेज़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। सवाल यह भी है कि — क्या तालिबान की वैचारिक जड़ें देवबंद से जुड़ी हैं, और क्या भारत को ऐसे समूह से संबंध बढ़ाने चाहिए? आइए इसे क्रमवार समझते हैं 👇 🕋 1. देवबंद और तालिबान का वैचारिक संबंध 🔸 ऐतिहासिक आधार दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 1866 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध धार्मिक और शैक्षणिक आंदोलन के रूप में हुई। इसका उद्देश्य था इस्लामी शिक्षा, नैतिकता और सामाजिक सुधार को पुनर्जीवित करना। 🔸 वैचारिक समानता, प्रत्यक्ष संबंध नहीं “तालिबान” शब्द का अर्थ है विद्यार्थी — उनके कई सदस...

जनसंख्या नियंत्रण कानून की प्रासंगिकता


जनसंख्या नियंत्रण संबंधी कानून की आवश्यकता और संभावित परिणाम


भारत के दूरदर्शी नेताओ ने 1952 से ही परिवार नियोजन के माध्यम से जनसंख्या नियंत्रण पर जोर दिया। 
कालांतर में इमरजेंसी के बाद इस नीति का नाम बदल कर परिवार कल्याण किया गया।
ऐसा भी दौर आया था जब जबरन नसबंदी की गई और जनसंख्या में बेतहसा वृद्धि देखी गई।
आजकल एक खास पार्टी के समर्थक और खास विचारधारा से जुड़े लोग एक ऐसे कानून की मांग कर रहे है जिससे एक खास संप्रदाय से जुड़े लोगो की जनसंख्या कम हो जाए। 

हालंकि मैने जब मालूम किया तो वो खुद भी 5/7 भाई बहिन थे और उनके पिता, दादा जी भी 5/7 भाई बहिन रहे है लेकिन उन्होंने 2 बच्चे की नीति का पालन किया है और अब परेशान और भयाक्रांत है कि उनकी जनसंख्या कम पड़ जाएगी और अमुक लोगो की ज्यादा हो जाएगी।
वास्तविकता यह है कि शिक्षा, स्वास्थ्य के साधनों, नियोजन के साधनों और रोजगार से जनसंख्या स्वत कम हो रही है। 
बाल मृत्युदर कम होने पर भी जनसंख्या पारिवारिक नियोजन से नियंत्रित हुई है। 
लेकिन फिर भी जिस स्तर पर जनसंख्या कम होनी चाहिए थी वो नही हो पा रही और हम चीन को पछाड़ने वाले है जल्दी।


सभी समस्याओं का कारण जनसंख्या में देखने वाले लोग  सोचते हैं कि बेचारे नेता सही हैं और व्यवस्था भी चाक चौबंद है पर बस लूटने वाले ज्यादा है।
लेकिन यह सोच भी आंसिक सही है और आंशिक गलत।
जनसंख्या का स्तर एक हद तक संसाधन है अगर शिक्षित और समस्या है अगर वो अशिक्षित और बेकार और गैर नवाचारी हो।
अगर जनसंख्या कानून बनाया जाए तो कैसा हो ?
कानून का अनुपालन नही करने से कैसे वो लोग प्रभावित होने चाहिए कि मजबूर हो जाए! 
कुछ विचारणीय बिंदु और चुनौतियां रख रहा हु।
१* जबरन नसबंदी से जनसंख्या तेजी से बढ़ी थी तो अब  क्या होगा। जबकि स्वेच्छा से अब बहुत बड़ी संख्या में परिवार नियोजन अपना रहे है। इसको परिवार कल्याण नाम दिया गया है।

२* भारत में ग्रामीण क्षेत्र में आज भी बालक बालिका में भेद किया जाता है ऐसे में बालिका भ्रूण हत्या बढ़ सकती है ।इसके अलावा कालांतर में लैंगिक विषमता भी बढ़ सकती है।  अगर यह नही भी हुआ तो कानून तोड़ने पर क्या सजा होगी?
 सजा माता पिता को मिलेगी या बच्चो को?


३* अगर कानून एक संप्रदाय विशेष  के लिए लागू किया जाएगा तो भेदभाव होगा। यह सभी पर लागू होगा तो कानून मांग करने वाले संप्रदाय  की जनसंख्या कम होगी।
लेकिन जिनको टारगेट किया जाने का सोच रहे हो उन पर कोई फरक नही पड़ेगा।  उनको तो पेंचर की दुकान ही खोलनी है। वैसे भी सरकारी योजनाओं का लाभ उनको न के बराबर मिल रहा है। ऐसे में यह सिर्फ एक संप्रदाय को मानने वाले ही ढोएंगे जो उनके लिए जरूरी ही नही ।

 
४* करीब 40/50 साल बाद हिंदुओ की जनसंख्या 10% कम हो जाएगी कानून के कारण और देश में आश्रित जनसंख्या ज्यादा हो जाएगी। जैसे वरिष्ठ नागरिक ज्यादा होंगे। यह आर्थिक बोझ होगा ।
५* आर्थिक उत्पादक जनसंख्या कम हो जाएगी । 


बेहतर पक्ष 

१* कानून से दूरगामी परिणाम मिलेंगे
 और संसाधनों पर बोझ कम होगा।
२* आर्थिक, शैक्षणिक ,स्वास्थ्य संबंधी नियोजन में सरलता होगी।
चीन के अनुभवों से सीखा जा सकता है। अब उसी देश ने 3 बच्चो की नीति लागू की है।
जापान में औसत आयु बहुत अधिक है और सरकार वरिष्ठ नागरिकों का ध्यान रखती है।
लेकिन भारत में अभी भी वरिष्ठ नागरिकों को पर्याप्त सहूलियत नही मिल रही है।
मेरे विचार से कानून के बजाए शिक्षा और जागरूकता तथा स्वास्थ्य संबंधित ढांचा खड़ा किया जाए और बाल मृत्युदर कम करे। इन के साथ ही जन संख्या नियंत्रण का पालन करने वालो को प्रोत्साहित किया जाए।


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