कट्टर हिंदुत्व से कट्टर तालिबान तक संबंध !

देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? 🕌 देवबंद से तालिबान तक: वैचारिक समानता या राजनीतिक दूरी? भारत–तालिबान संबंध : वक्त की ज़रूरत हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताक़ी की भारत यात्रा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोरी। यह यात्रा भारत–अफ़ग़ानिस्तान संबंधों को नए सिरे से देखने का अवसर प्रदान करती है। वर्षों तक दोनों के बीच संवाद सीमित रहा, पर अब भू–राजनीतिक परिस्थितियों ने दोनों को बातचीत की मेज़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। सवाल यह भी है कि — क्या तालिबान की वैचारिक जड़ें देवबंद से जुड़ी हैं, और क्या भारत को ऐसे समूह से संबंध बढ़ाने चाहिए? आइए इसे क्रमवार समझते हैं 👇 🕋 1. देवबंद और तालिबान का वैचारिक संबंध 🔸 ऐतिहासिक आधार दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 1866 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध धार्मिक और शैक्षणिक आंदोलन के रूप में हुई। इसका उद्देश्य था इस्लामी शिक्षा, नैतिकता और सामाजिक सुधार को पुनर्जीवित करना। 🔸 वैचारिक समानता, प्रत्यक्ष संबंध नहीं “तालिबान” शब्द का अर्थ है विद्यार्थी — उनके कई सदस...

किसान आंदोलन के कारण तथा किसान और सरकार का पक्ष | किसानों की आशंकाए तथा समाधान हेतु सुझाव | किसान आंदोलन के कारण | कृषि कानून |

 किसान आंदोलन क्यों? किसान और सरकार का क्या पक्ष है? आइए किसानों की आशंका जाने।

किसान आंदोलन कब शुरू हुआ ?

किसान आंदोलन को कितना टाइम हुआ ? कितने दिन हो गए ?

26 नवंबर से शुरू हुए आंदोलन को लगभग 180 दिन हो गए।

देश  68% सीमांत किसान है तथा लगभग 10% लघु  कृषक हैैं। सीमांत किसान वो 

#जिनके पास 1 हेक्टेयर से कम जमीन है और लघु किसान वो होते है जो 1 से 2 हेक्टेयर के बीच जमीन के मालिक होते है।#

इस लेख में मैंने किसानों की आशंकाओं और सरकार के तर्कों के साथ रखा है जो तीन कृषि कानूनों से संंबंधित हैं।


"सरकार ने तीन कानून कृषकों के हितों के लिए बनाए है।" यह कहना है केंद्र सरकार का।


लेकिन क्या वास्तव में ही ऐसा है ? इस सवालों के जवाब तलासने पर कुछ और सवाल उभर कर आते है।


1* जब देश में बड़ी संख्या में किसान सीमांत या लघु कृषक हैं तो उनके हितों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून क्यों नही बनाया?


2* बिना किसी चर्चा और विचार विमर्श के क्यों बनाया?


3* वेयर हाउस और विपणन में किसानों के हितों के लिए क्या सुरक्षात्मक प्रावधान किए?


4* यदि कभी किसान कर्ज में फंस जाए जैसा कि वर्तमान में भी है तो किसान की भूमि अधिग्रहण या बैंक और निजी कंपनियों की मनमानी रोकने के क्या उपाय है? क्यों नही कोई कानून बनाया?


5* जब ग्रीन ट्रिब्यूनल, कर्मचारियों के लिए अलग से न्यायिक संस्थान बनाए जा सकते है तो किसानों के लिए कृषक ट्रिब्यूनल क्यों नही?


6* किसान की न्यूनतम आय सुनिश्चित करने के लिए कानून क्यों नही बन सकता?

इत्यादि सवालों के जवाब किसान के जेहन में है।


पर क्या है !

वर्तमान कानून और किसानों के अनुसार समस्या !


हाल ही में तीन कानून बने है जो बिना संसद में चर्चा और विमर्श के बनाए गए है। ये चोर दरवाजे से थोपे गए प्रतीत होते है।

ये हैं :-
१* कृषि उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) एफपीटीसी(पी एफ) एक्ट 2020

२* आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955

३* कृषक (सशक्तीकरण और संरक्षण ) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020

कुछ प्रावधान जिन पर किसानों को आपत्ति है। उन को सरकार ने अपना पक्ष बताया है।

सरकार का तर्क :-


1* कानूनों में किसान हितों की रक्षा की व्यवस्था करने के लिए परंपरागत कृषि मंडियों से बाहर खुले में बेचने का प्रावधान है ताकि कृषक से सीधे ही ओद्यौगिक निगम और 
विपणन कंपनी खरीद सके। 

2* आढ़तियों और बिचोलियों से बचाने तथा अतिआवश्यक वस्तुओं के स्टोरेज  की असीमित मात्रा की छूट देना ताकि लंबे समय तक किसान अपनी फसल रोक रखे और उचित कीमत मिलने पर बेच सके।

3* कॉन्ट्रैक्ट कृषि के लिए विवाद निस्तारण अब ब्लॉक और जिला अधिकारियों के हाथो में दिया जाना शामिल है। इसके लिए सरकार का तर्क है कि विवाद न्यायिक प्रक्रिया में नही उलझ कर त्वरित रूप से सुलझ जाएं ।

4* कृषि उपज को किसान अपने स्टेट से बाहर कहीं भी बेच सकता है जिससे उसे अच्छी कीमत मिलेगी।

इत्यादि मुख्य हैं।


कहने को तो ये तीन कानून है जिनको अलग अलग बनाया गया है पर वास्तव में ये तीनों एक दूसरे से संबंधित है और जुड़े है, बल्कि एक दूसरे के पूरक है।

ये समझने से पहले इन कानूनों के विरोध के कारण और किसानों की चिंताओं को जानना जरूरी है।


 किसान के सरकार से सवाल है जो निम्न हैं:-


1* क्या पहले हम सभी किसान मंडियों पर बेचने के लिए मजबूर थे? किसान तो पहले भी कही भी बेच सकता था लेकिन मंडियां खत्म होने का डर है ।किसानों का अपना बाजार खत्म हो जाएगा और कंपनियों का बाजार होगा जिसमे कीमत तय करने और ज्यादा दूर हो जाएगा किसान।


2* क्या इन कानूनों में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का प्रावधान जरूरी नहीं था? भाषण तो नोटबंदी पर भी दिया था क्या हुआ? केवल बोलने या जबानी आश्वासन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। सरकार कानून में क्यों नहीं लिखवाते कि एमएसपी खत्म नहीं होगी?


3* क्या इस देश में 78% किसान जिनके खेत छोटे हैं और कम पैदावार होती है वो अपनी उपज राजस्थान से तमिलनाडु ले जाएगा? अगर नहीं तो कौन ले जा सकेगा? जिन्होंने खरीद लिया और स्टॉक कर लिया उनके लिए आसान रास्ता बना दिया!


4* कृषक और कंपनियों का विवाद एसडीएम और जिलाधिकारी सुलझाएंगे मतलब भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं मिलेगा? किसान को सामने तक नहीं बैठने दिया जाता इन अधिकारियों द्वारा फिर जब मामला कंपनियों और किसानों का हो तो सहज ही समझ सकते हो यह अंग्रेजी शासन जैसा हो जाएगा।


5* पैसे का भुगतान अब तीन कर्यदीवस में होगा । इसका मतलब अगर मान लीजिए मैंने अपना उत्पाद गुजरात भेज दिया अब मै जब तक तीन बार नहीं जाऊंगा तब तक वो बाध्य नहीं है पैसे चुकाने के लिए और फिर एसडीएम और जिलाधीश तो हैं ही।


6* अतिआवश्यक वस्तुओं के स्टॉक से पाबंदी हटा लेने से कृषि उत्पादों का स्टॉक बड़े बड़े पूंजीपति कर सकेंगे तब वो उस समय बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे जब उनकी कीमत आसमान में होगी। यह भी हो सकता है कि कृत्रिम कमी उत्पन्न कर अच्छी कीमत वसूली जाए।

वैसे भी छोटे किसान (72-75%) स्टॉक करने से रहे। वो उत्पाद को जल्दी बेच देते है ताकि आवश्यकताएं पूरी हो और कर्ज तथा कृषि लागत चुका सके।


7* भुगतान और कालाबाजारी की समस्या के अनुकूल प्रतीत होने से किसान आशंकित हैं। इसके लिए मैकेनिज्म क्या होगा इसका स्पष्टीकरण नही है।


सुझाव :-


सरकार किसान हितों के लिए इन कानूनों में निम्न प्रावधान करे।

१* एमएसपी से संबंधित और किसान पेंशन तथा न्यूनतम आय निर्धारित करने के लिए कानून बनाए।

२* अनिवार्य वस्तुओं की उपलब्धि सुनिश्चित हो । क्योंकि 70% गरीब जनता ऊंची कीमत पर नहीं खरीद सकेगी। इसके लिए पीडीएस प्रणाली को मजबूत बनाए।तथा खाद्य सुरक्षा का दायरा व्यापक किया जाए।

३* कॉन्ट्रैक्ट कृषि में न्यूनतम मूल्य पर कंपनी अनिवार्य रूप से खरीदे तथा लागत और मेहनत जरूर दे। विवाद का निस्तारण  अलग से "कृषक न्यायिक ट्रिब्यूनल" स्थापित कर करे जिसमे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश स्तर का अध्यक्ष , किसान प्रतिनिधि, विपक्ष ,महिलाएं और श्रमिक वर्ग का सदस्य हो।


 ४* बाहरी खरीददारों को मंडियों में ही अनुमति मिले या बाहर खरीदे पर न्यूनतम कीमत पर बाध्य किया जाए ऐसा कानून बनाया जाए।


 ५* पुराने आढ़तियों और बिचोलियों के स्थान पर बड़े और अधिक शक्तिशाली बिचोलिए बन जाएंगे अगर मंडियों और एमएसपी का जारी रहना सुनिश्चित नहीं रहा तो।

६* कर्ज में फंसे किसान की जमीन बाजार मूल्य से 4 या 5 गुने कीमत में ही बैंक या कंपनी ले सकेगी अथवा भूमि से बेदखल नही करने का कानून बनाया जाए।

७* गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा को किसानों के लिए मुफ्त किया जाए।


कुछ उदाहरण


१* अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देशों ने इस तरह के कानून बनाएं है जिनसे किसानों की आय पहले तो बढ़ी है फिर धीरे धीरे कम हुई है और अंतिम रूप से मनमानी हुई है।


२* बिहार में एमएसपी नहीं लागू होती है जिससे सस्ती दरो पर खरीद कर सक्षम व्यापारी अन्य जगह ऊंचे दामों पर बेचता है।

क्या ऐसा पूरे देश में नहीं होगा?


सच में आज तक निम्न तबके को बिना मांगे कोई कुछ दे सका है? राजनीति गणित से चलती है इस हाथ लेे उस हाथ दे। मतलब राजनीति व्यापार भी है। इस व्यापार को गुजरात के व्यापारी मानसिकता वाले नहीं समझते ऐसा असंभव है।


सवाल है ये अध्यादेश किसको कुछ देने के लिए बनाए गए है और किसके लिए क्या किया है? 


दरअसल चुनाव करोड़ो रुपए से और आम आदमी के वोट से ही नहीं लड़ा जाता है, यह बड़े संसाधनों और पूंजीपतियों के अतिरिक्त मीडिया के आधार पर निर्णायक होता है। इसलिए हरेक दल और सरकार आसानी से पूंजीपतियों के लिए सरल कानून और आसान परिस्थितियां निर्मित करता है। 


उम्मीद है सरकार किसानों को सड़कों पर उनके हाल पर छोड़ने के बजाए बैठ कर बात सुनेगी और तमाम आशंकाओं का निराकरण करेगी। यह अंग्रेजी शासन नहीं है और अपनी आईटी सेल और समर्थकों से इनको आतंकी ना कहलवाए जैसा कि दिल्ली में किया।

इस आंदोलन में किसान सड़क पर है कोई जाति, धर्म या संप्रदाय नही।

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